श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

 देवान्भावयतानेन ते देवा भावयंतु व:।

परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सभी को सम्पन्नता प्राप्त होगी। देवतागण सांसारिक कार्यों के लिए अधिकार प्राप्त प्रशासक हैं। प्रत्येक जीव द्वारा शरीर धारण करने के लिए आवश्यक वायु, प्रकाश, जल तथा अन्य सारे वरदान देवताओं के अधिकार में हैं, जो भगवान के शरीर के विभिन्न भागों में असंख्य सहायकों के रूप में स्थित हैं।

 

उनकी प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता मनुष्यों द्वारा यज्ञ की सम्पन्नता पर निर्भर है। कुछ यज्ञ किन्हीं विशेष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए होते हैं किन्तु तो भी सारे यज्ञों में भगवान विष्णु को प्रमुख भोक्ता की भांति पूजा जाता है। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान कृष्ण स्वयं सभी प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं- भोक्तारं यज्ञतपसाम्।

अत: समस्त यज्ञों का मुख्य प्रयोजन यज्ञपति को प्रसन्न करना है। जब ये यज्ञ सुचारू रूप से सम्पन्न किए जाते हैं तो विभिन्न विभागों के अधिकारी देवता प्रसन्न होते हैं और प्राकृतिक पदार्थों का अभाव नहीं रहता। यज्ञों को सम्पन्न करने से अन्य लाभ भी होते हैं जिससे अंतत: भवबंधन से मुक्ति मिल जाती है। यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं। इससे मनुष्य जीवन शुद्ध हो जाता है।