सांख्य और कर्मयोग का संबंध
भौतिक जगत के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है। भौतिक जगत की आत्मा विष्णु या परमात्मा है. भगवान की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है। एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है। सांख्य दर्शन का वास्तविक छात्र जगत के मूल अर्थात विष्णु को ढूंढता है, और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान की सेवा में लगा देता है। अत: मूलत: इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है। जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते, वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं है। किंतु जो विद्वान है, वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है। दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरम लक्ष्य की खोज है। चूंकि जीवन का चरम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अत: दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तुत: जो पदार्थ से विरक्ति व कृष्ण में आसक्ति को एक तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
मायावादी संन्यासी सांख्य दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदान्त सूत्रों के यथार्थ भाष्य भागवत दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं। वैष्णव संन्यासियों को भौतिक कार्य से कोई सरोकार नहीं रहता, तो भी वे भगवान की भक्ति में नाना प्रकार के कार्य करते हैं। किन्तु मायावादी संन्यासी, जो सांख्य तथा वेदान्त के अध्ययन व चिन्तन में लगे रहते हैं, भगवान की दिव्य भक्ति का आनन्द नहीं उठा पाते। उनका अध्ययन अत्यन्त जटिल हो जाता है, अत: वे कभी-कभी ब्रह्म चिन्तन से ऊबकर समुचित बोध बिना ही भागवत की शरण ग्रहण करते हैं। मायावादी संन्यासी कभी-कभी आत्म-साक्षात्कार के पथ से नीचे गिर जाते हैं और फिर से समाजसेवा, परोपकार जैसे भौतिक कर्म में प्रवृत्त होते हैं। अत: निष्कर्ष निकला कि कृष्णभावनामृत के कार्य में लगे रहने वाले लोग ब्रह्म-अब्रह्म विषयक चिन्तन में लगे संन्यासियों से श्रेष्ठ होते हैं, यद्यपि वे भी अनेक जन्मों के बाद कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं।